Sunday, 8 April 2018

छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की समृद्ध संस्कृति

 

          छत्तीसगढ़ की आबादी में बड़ी संख्या में विभिन्न आदिवासी जनजातियों का समावेश है। इसमें उरांव, कमार, बैगा, बिरहोर, मुरिया, माड़िया, वगैरह शामिल है  उनकी बोलियां भी विभिन्न है जैसे हल्बी, गोंडी, अबूझमाड़, सरगुजिया, भरतरी आदि आदि इनकी जीवन शैली पर प्रकृति का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है आडंबरहीन और सच्चा सादा जीवन जीने वाले यह आदिवासी अपनी अपनी परंपराओं का पूरी तरह से पालन करते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही मान्यताओं और रिवाजों को यह बड़ी आस्था के साथ जीवित रखे हुए हैं। छत्तीसगढ़ की धरती पर वन क्षेत्रों की भरमार है। साल, सागौन, तेंदू, इमली, आम, महुआ जैसे वृक्षों के अलावा असंख्य वनस्पतियों से यहां के जंगल भरे पड़े हैं। सघन वनों के बीच बहती नदियां मंत्रमुग्ध कर देने वाले पहाड़ी झरने सबने मिलकर इन आदिवासियों को मानो स्वर्ग में बसा रखा है। साफ-सुथरी प्रदूषण रहित हवा में सांस लेने वाले इन आदिवासियों की सादगी अपने आप में एक बड़ा गुण है। मौसम के साथ-साथ उनका सम्मान करके चलना एक बहुत बड़ा मानवीय गुण है। जो इनको कभी भी प्रकृति के विरुद्ध चलने या पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का काम नहीं करने देता। हम भले ही इन्हें पिछड़ा समझने की भूल कर बैठते हैं, लेकिन ऐसा नहीं इनकी सोच सुलझी साफ-सुथरी और बुद्धिमतापूर्ण होती है। 


          दो उदाहरणों से ऐसे समझा जा सकता है। पहला यह कि ये कच्चे फल नहीं तोड़ते। जैसे गर्मियों में कच्चे आम तोड़कर खाने का लालच हमें रहता है, लेकिन यह आदिवासी कभी कच्चे आम नहीं तोड़ते विधिवत पूजन करने के बाद ही यह इन आबू आम को उपयोग में लाते हैं। छत्तीसगढ़ की आबादी में बड़ी संख्या में आदिवासियों की विभिन्न जनजातियों का समावेश है। इनके द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं या बोलियां भी अलग-अलग है। जैसे छत्तीसगढ़ी के अलावा हल्बी, गोंडी, सरगुजिया, अबूझमाड़ी, भरतरी आदि। इनका जीवन सादा लेकिन ये अपनी अपनी परंपराओं को जीवित रखे हुए हैं। इनकी परंपरा और संस्कृति सब ज्यादातर प्रकृति से जुड़ी हुई है। पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे रीति रिवाजों को बड़ी आस्था के साथ मानते चले आ रहे हैं।

          दूसरा उदाहरण ‘घोटुल’ का... साफ सोच और पवित्र मानसिकता के साथ आदिवासी युवक-युवतियां लगभग प्रत्येक सप्ताह आयोजित होने वाले ‘घोटुल’ में मिलते हैं। घर से दूर एक रात यहां गुजारते हैं नाच गाना चलता है। अपनी अपनी पसंद का साथी चुनने की पूरी छूट रहती है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इस स्वतंत्रता का कोई गलत फायदा नहीं उठाता मर्यादा का पूरा ध्यान रखा जाता है। क्योंकि इनके चुने हुए साथी से ही बाद में परिजन इनका विवाह रस्मो-रिवाज के साथ कर देते हैं। यह परंपरा इतना तो सिखा जाती है की स्वछंदता का अर्थ उच्श्रृंखलता नहीं होता।

          इन आदिवासियों को वनस्पतियों और खास तौर पर औषधीय वनस्पतियों का अच्छा ज्ञान रखता है। गुजरात के ‘‘डांग’’ आदिवासियों की तरह इनको भी रोजमर्रा में उपयोग होने वाली वनस्पतियों से सामान्य से लेकर मधुमेह जैसी बीमारियों का इलाज करने का ज्ञान है। प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर खुश एवं संतुष्ट रहना साथ ही प्राकृतिक वातावरण में जीने की कला हमें इनसे सीखना चाहिए।